अमृत अमरता का प्रतीक है और इसकी उत्पति उस समय हुई जब देव-दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। चैदह रत्नों के बाद जैसे ही अमृत कलश सागर लहरों के ऊपर आया। देव-दानव उसे पाने के लिए दौड़े मगर लीलाधारी भगवान विष्णु की लीला से केवल देवताओं को ही अमृत मिला। यह देख दानव सम्राट हुंड क्रोधित हुआ। उसने गुरुदेव शुक्राचार्य की सहायता से भगवान महाकाल को प्रसन्न कर देव विजय का वरदान प्राप्त किया और तत्काल देवलोक पर आक्रमण कर दिया। हुंड की शक्ति के सामने देवगण न ठहर सके और वे अमृत कलश लेकर भाग खड़े हुए। दानवों ने उनका पीछा किया अपनी जान बचाने के लिए देवता तो भगवान दत्तात्रेय के शरीर में समा गए और अमृत कलश सागर राज ने ग्रहण कर लिया।
अमृत मिलने के कारण हुंड का अत्याचार अपनी पराकाष्टा पर पहुँच गया और ऐसे ही पाप और अनाचार के फैले हुए भयानक अँधकार में दो दिव्य शक्तियों ने जन्म लिया।
एक शक्ति थी शिवकन्या के रूप में अशोक सुन्दरी और दूसरी थी महाराज आयु का पुत्र नहुष धीरे-धीरे समय बीता। नहुष और सुन्दरी जवान हुए। नारद जी की बातों में आकर हुँड अशोक सुन्दरी को ही अमृत समझकर ले उड़ा। आखेरसे लौटतें हुए नहुष ने सुन्दरी की चीख सुनकर उसकी रक्षा की और इस घटना ने एक दिन दोनों प्रमियों को विवाह बन्धन में बांध दिया।
यह समाचार सुनकर हुँड ने नहुष को समाप्त करने और अशोक सुन्दरी को पाने के लिए काँचनपुरी पर चढ़ाई कर दी। इधर नहुष को जब मुनि वशिष्ठ द्वारा अपने असली माता पिता पर किए गए हमले की खबर लगी तो वह काँचनपुरी की तरफ चल पड़ा। मगर मंजिल पर पहुँचने से पहले ही आग की लपटों से दूसरों को बचाने में उसकी आँखे चली गई।
स्वामी की यह दुर्दशा अशोक-मुन्दरी ने स्वप्न में देखी और उसकी सहायता के लिये वह पति परायणा नारी उसी समय उनके पास जा पहुँची। नहुष सुन्दरी के सहारे आगे चल पड़ा लेकिन भाग्यचक्र ने फिर दोनों को अलग कर दिया। बेचारी सुन्दरी हुँड के हाथों में पड़ गई। इसी बीच महाराज आयु भी महारानी के साथ बन्दी बना लिये गए। हुँड ने नहुष का पता न पाने पर सुन्दरी के सामने ही महाराज और महारानी को प्राण दंड की आज्ञा दी।
राह में भटकते हुए नैन हीन नहुष पर भगवान दत्तात्रय ने कृपा की और वह वीर केशरी पत्नी तथा अपने माता-पिता के उद्धार के लिए हुँड से जा टकराया।
भयानक युद्ध का तूफान उठा जिसमें संघर्ष करते-करते उसकी जीवन ज्योती काँपकर बुझ गई। मगर सती ने काल को ललकारा। अमृत मँगाने के लिए उसने भगवान की प्रार्थना की। हुँड उसकी प्रार्थना निष्फल करने के लिए बहुत प्रयत्न किए।
लेकिन विजय किसकी हुई? धर्म की या अधर्म की? सती को अपना सुहाग वापस लाने के लिए अमृत मिला या नहीं? पापी हुँड के अत्याचारों का क्या परीणाम हुआ?
इन सब जटिल प्रश्नों का उत्तर आप इस महान धार्मिक चित्र "अमृत मंथन" को रूपहरी पर्दे पर देख कर ही दे सकते है।
(From the official press booklet)